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रामनवमी: जिस चरित्र से पूरा मानव समाज गरिमा के साथ प्रकट होता है, वही राम हैं

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राम के बारे में ठीक ही कहा गया है कि राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के बारे में इतना साहित्य रचा गया है कि शायद ही किसी नायक के इतने चरित्र गढ़े गए हों. भारत के उत्तर-दक्षिण-पूर्व और पश्चिम के देशों में भी राम कथा किसी न किसी रूप में मौजूद है. पश्चिमोत्तर में कांधार देश (आज का सेंट्रल एशिया) तो पूर्व में बर्मा, स्याम, थाईलैंड और इंडोनेशिया तक राम कथा के स्रोत मिलते हैं. राम भले वैष्णव हिन्दुओं  के लिए विष्णु के अवतार हों, लेकिन जैन, सिख और बौद्ध धर्मों में भी राम-कथा है.

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राम को हर जगह अयोध्या का राजा बताया गया है, बस बाकी चरित्रों में भिन्नता है. राम आदर्श, धीरोदात्त नायक हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, उनके अन्दर सागर जैसी गम्भीरता है और उनके चरित्र में पहाड़ सदृश ऊंचाई. वे समाज में एक ऐसे चरित्र को प्रतिस्थापित करते हैं, जिस चरित्र से पूरा मानव समाज गरिमा के साथ प्रकट होता है. उनमें अनुशासन है, वे मां-बाप और गुरु के आज्ञाकारी हैं. लोभ तो उनमें छू तक नहीं गया है. ऐसे राम हमारे भारतीय समाज के नायक तो होंगे ही. तभी तो मशहूर शायर इकबाल ने भी उन्हें इमाम-ए-हिन्द बताया है.

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रामकथा एक, वर्णन अनेक

राम एक ऐसे नायक हैं, जो धर्म, जाति और संकीर्णता के दायरे से मुक्त हैं. वे सिर्फ और सिर्फ मानवीय आदर्श के मानवीकृत रूप हैं. आदि कवि वाल्मीकि से लेकर मध्यकालीन कवि तुलसी तक ने उन्हें विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है. लेकिन एक आदर्श नायक के सारे स्वरूप उनमें निहित हैं. हर कवि ने राम को अपनी नज़र से देखा और उनके अलौकिक गुणों की व्याख्या अपनी संवेदना से की. मूल आधार वाल्मीकि रामायण है, लेकिन क्षेपक अलग-अलग हैं. जैसे तमिल के महान कवि कंबन ने अपने अंदाज़ में गाया है तो असम के माधव कन्दली का अंदाज़ अलग है. उन्होंने 14वीं शताब्दी में सप्तकांड रामायण लिखी थी. लेकिन वहां लोकप्रिय हुई कृतिवास की बांग्ला में लिखी गई रामायण. कहीं राम स्वर्ण-मृग की खोज में नहीं जाते हैं तो कहीं वे सीता की अग्नि परीक्षा और सीता वनवास से विरत रहते हैं. जितने कवि उतने ही अंदाज़, किन्तु राम कथा एक. यह विविधता ही राम कथा को और मनोहारी तथा राम के चरित्र को और उदात्त बनाती है.

किष्किन्धा में अकेले पड़े राम लक्ष्मण

एक प्रसंग का वर्णन कंबन की तमिल राम कथा के सहारे और तुलसी का आधार लेकर सुप्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव ने किया है. वानर राज बालि के वध का प्रसंग तो अद्भुत है. वे लिखते हैं- बालि घायल पड़ा था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि सुग्रीव उसका छोटा भाई कभी उसे परास्त भी कर सकता है. तभी उसने अर्ध चेतन अवस्था में ही राम और लक्ष्मण को वृक्षों के झुरमुट से बाहर आते देखा. वह फौरन समझ गया कि उसकी यह हालत सुग्रीव की गदा से नहीं बल्कि इन दो मनुष्यों के तीरों से हुई है. उसने कातर दृष्टि सांवले राम की तरफ डाली और बोला-

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धर्म हेतु अवतरेहु गुसाईं, मारेहु मोहि ब्याधि की नाईं!

मैं बैरी सुग्रीव पियारा, कारन कवन नाथ मोहिं मारा!!

राम निरुत्तर थे. क्या बोलते. दूसरे का देश और वह प्रजा जो राम से अपरिचित थी. यहां सिर्फ हनुमान, अंगद और सुग्रीव के अलावा बाकी सब राम को नहीं जानते थे. वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या जवाब दे. अगर अपने राजा की यह स्थिति देखकर प्रजा भड़क गई तो, अथवा पट्ट महारानी तारा के विलाप से उनका पुत्र अंगद और देवर सुग्रीव विचलित हो गए तो राम का अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ मारा जाना तय था. भीड़ पर अंकुश पाना आसान नहीं होता. तारा की दहाड़ और अंगद का बिलखना खुद राम को भी विचलित कर रहा था. बड़ी कसमकश की घड़ी थी. तब ही अचानक राम की चेतना जागी और वे बोले-

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अनुज वधू, भगिनी, सुत-नारी, सुन सठ कन्या सम ये चारी!

इन्हें कुदृष्टि बिलोकहि जोई, ताहि बधे कछु पाप न होई!!

राम ने अपनी बुद्घि चातुर्य का अद्भुत प्रदर्शन किया. उन्होंने बड़ी सफाई से एक क्षण में ही बालि के संपूर्ण आचरण को संदेहास्पद बना दिया. अब बालि अपराध बोध से ग्रसित था. और उसकी प्रजा के पास इसका कोई जवाब नहीं था कि वह बालि के आचरण को सही कैसे ठहराए. यह सच था कि वानर राज बालि ने अपने छोटे भाई को लात मारकर महल से निकाल दिया था और उसकी पत्नी को अपने महल में दाखिल करवा लिया था. भले यह किष्किंधा राज्य वानरों का था पर दूसरे वह भी छोटे भाई की पत्नी को छीन लेना उचित कहां से था. राम ने एक मर्यादा रखी कि छोटे भाई की पत्नी, बहन और पुत्रवधू अपनी स्वयं की कन्या के समान है. और इन चारों पर बुरी नजर रखने वाले को मौत के घाट उतारना गलत नहीं है.

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देश को हड़पना राम की नीति नहीं थी

तत्क्षण दृश्य बदल गया और बालि को अपने अपराध का भान होते ही वह स्वयं ही अपराध बोध से ग्रस्त हो गया और अपनी इस भूल का अहसास उसे हुआ तथा उसने प्राण त्याग दिए. राम ने एक मिनट की भी देरी नहीं की और सुग्रीव को किष्किंधा का नया राजा घोषित कर दिया तथा देवी तारा को दुख न हो इसलिए उनके पुत्र अंगद को युवराज.


इससे जनता में एक संदेश गया कि ये दोनों मनुष्य भले ही हमारे राजा के हंता हों पर ये राज्य के भूखे नहीं हैं और देखो इन्होंने राज्य खुद न हड़प कर हमारे राजा के छोटे भाई सुग्रीव को सौंपा तथा राजा बालि के पुत्र अंगद को युवराज बनाया. राम चाहते तो राजा विहीन किष्किंधा को हड़प सकते थे. क्योंकि सुग्रीव तो अपने भाई के साथ विश्वासघात करने के कारण वैसे ही अपराध के बोध से परेशान होते और विरोध भी न कर पाते. मगर राम ने एक मर्यादा को स्थापित किया.

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यही राम की विशेषता थी जिसके कारण आज भी राम हमारे रोम-रोम में समा गए हैं. राम के बिना क्या हिंदू माइथोलॉजी, हिंदू समझदारी और हिंदू समाज व संस्कृति की कल्पना की जा सकती है? राम इसीलिए तो पूज्य हैं, आराध्य हैं और समाज की मर्यादा को स्थापित करने वाले हैं. वे किष्किंधा का राज्य सुग्रीव को सौंपते हैं और लंका नरेश रावण का युद्घ में वध करने के बाद वहां का राज्य रावण के छोटे भाई विभीषण को.

लोभ से परे हैं राम

राम को राज्य का लोभ नहीं है. वे तो स्वयं अपना ही राज्य अपनी सौतेली मां के आदेश पर यूं त्याग देते हैं जैसे कोई थका-मांदा पथिक किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ता है- राजिवलोचन राम चले, तजि बाप को राजु बटाउ की नाईं. राम आदर्श हैं और वे हर समय समाज के समक्ष एक मर्यादा उपस्थित करते हैं.

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राम एक पत्नीव्रती हैं पर पत्नी से उनका प्रेम अशरीर अधिक है बजाय प्रेम के स्थूल स्वरूप के. वे पत्नी को प्रेम भी करते हैं मगर समाज जब उनसे जवाब मांगता है तो वे पत्नी का त्याग भी करते हैं. उसी पत्नी के लिए जिसे पाने हेतु वे उस समय के सबसे शक्तिशाली राजा रावण का वध करते हैं और उसकी विशाल सेना का नाश करते हैं.


मगर पत्नी के प्रति मोह से वे दूर हैं और अयोध्या के एक सामान्य-से व्यक्ति के आक्षेप पर वे सीता को पुनः वनवास पर भेज देते हैं. उसी सीता को जिसने उस समय अपने पति का साथ दिया जब राम को 14 साल के वनवास का आदेश मिला पर जब सीता को जंगल में भेजते हैं तो सीता अकेली हैं और गर्भवती हैं. सोचिए कैसा रहा होगा वह व्यक्ति जो समाज में मर्यादा बनाए रखने के लिए अपने प्यार, मोह और निष्ठा सब का त्याग करता है. राम के इसी आचरण को सुनकर लगता है कि राम मनुष्य नहीं भगवान ही रहे होंगे.

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विविधता में एकता लाते हैं राम

राम हमारे मिथ के सबसे बड़े प्रतीक हैं. वे वैष्णव हैं, साक्षात विष्णु के अवतार हैं. वे उस समय की पाबंदी तोड़ते हुए खुद शिव की आराधना करते हैं और रामेश्वरम लिंगम की पूजा के लिए उस समय के सबसे बड़े शैव विद्वान दशानन रावण को आमंत्रित करते हैं. उन्हें पता है कि उनकी शिव अर्चना बिना दशानन रावण को पुरोहित बनाए पूरी नहीं होगी इसलिए राम रावण को बुलाते हैं. रावण आता है और राम को लंका युद्ध जीतने का आशिर्वाद देता है.

राम द्वेष नहीं चाहते. वे सबके प्रति उदार हैं यहां तक कि उस सौतेली मां के प्रति भी जो उनके राज्याभिषेक की पूर्व संध्या पर ही उन्हें 14 साल के वनवास पर भेज देती है और अयोध्या की गद्दी अपने पुत्र भरत के लिए आरक्षित कर लेती है. लेकिन राम अपनी इस मां कैकेयी के प्रति जरा भी निष्ठुर नहीं होते और खुद भरत को कहते हैं कि भरत माता कैकेयी को कड़वी बात न कहना. राम के विविध चरित्र हैं और वे सारे चरित्र कहीं न कहीं मर्यादा को स्थापित करने वाले हैं. संस्कृतियों के बीच समरसता लाने वाले हैं और विविधता में एकता लाने वाले हैं.

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शरणागत की रक्षा

विभीषण राम की शरण में आए हैं, मंथन चल रहा है कि इन पर भरोसा किया जाए या नहीं. सुग्रीव भी तय नहीं कर पा रहे हैं न जामवंत. कई वानर वीर तो विभीषण को साथ लेने के घोर विरोधी हैं, उनका कहना है कि राक्षसों को कोई भरोसा नहीं. क्या पता रावण ने कोई भेदिया भेजा हो. राम को विभीषण की बातों से सच्चाई तो झलकती है, लेकिन राम अपनी ही राय थोपना नहीं चाहते.


वे चुप बैठे सब को सुन रहे हैं. सिर्फ बालि का पुत्र अंगद ही इस राय का है कि विभीषण पर भरोसा किया जाए. तब राम ने हनुमान की ओर देखा. हनुमान अत्यंत विनम्र स्वर में बोले- प्रभु आप हमसे क्यों अभिप्राय मांगते हैं? स्वयं गुरु वृहस्पति भी आपसे अधिक समझदार नहीं हो सकते. लेकिन मेरा मानना है कि विभीषण को अपने पक्ष में शामिल करने में कोई डर नहीं है. क्योंकि यदि वह हमारा अहित करना चाहता तो छिपकर आता, इस प्रकार खुल्लमखुल्ला न आता.

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हमारे मित्र कहते हैं कि शत्रु पक्ष से जो इस प्रकार अचानक हमारे पास आता है, उस पर भरोसा कैसे किया जाए! किन्तु यदि कोई अपने भाई के दुर्गुणों को देखकर उसे चाहना छोड़ दे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है. आपकी महिमा से विभीषण प्रभावित हो, तो इसमें आश्चर्य कैसा! परिस्थितियों को देखते हुए मुझे विभीषण पर किसी प्रकार की शंका नहीं होती. अब राम चाहते तो विभीषण के बारे में अपना फैसला सुना देते, लेकिन उन्होंने अपने समस्त सहयोगियों की राय ली. यही उनकी महानता है और सबकी राय को ग्रहण करने की क्षमता. वे वानर वीरों को भी अपने बराबर का सम्मान देते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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Source : TV9

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साल की सबसे बड़ी निर्जला एकादशी आज, जाने इस तिथि का महत्व

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31 मई 2023 यानी कि आज निर्जला एकादशी है। यह सबसे बड़ी निर्जला एकादशी है। कहा जाता है कि व्रत 24 एकादशियों का फल प्रदान करता है। हिंदू धर्म में 24 एकादशियां होती हैं जिसमें इसे सबसे फलदायक माना जाता है। इस व्रत को रखना थोड़ा कठिन होता है क्योंकि इसमें एकादशी तिथि के सूर्योदय से लेकर अगले दिन द्वादशी के सूर्योदय तक बिना अन्न-जल ग्रहण के रहना पड़ता है।

ऐसी मान्यता है कि निर्जला एकादशी का व्रत करने से व्रती को धन, सौभाग्य, सफलता और समृद्धि की प्राप्ति होती है। वहीं इस साल निर्जला एकादशी पर सर्वार्थ सिद्धि और रवि योग का बना है। कहा जाता है कि पांचो पांडवों ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए यह व्रत रखा था। जिस वजह से इसे “पांडव निर्जला एकादशी” भी कहा जाता है।

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जानिए बिहार के सूर्य मंदिर के बारे में जिसका निर्माण स्वंय भगवान विश्वकर्मा ने करवाया था

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बिहार के औरंगाबाद जिले में देव नामक स्थान पर स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर अनोखा है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने एक रात में कर दिया था। यह भारत का एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जिसका दरवाजा पूर्व की ओर न होकर पश्चिम की तरफ है। इस प्रसिद्ध मंदिर में सूर्य देवता की मूर्ति सात रथों पर सवार है। इसमें उनके तीनों रूपों उदयाचल(प्रात: सूर्य), मध्याचल (मध्य सूर्य)और अस्ताचल (अस्त सूर्य)के रूप में देखने को मिलता है।

यह मंदिर करीब एक सौ फीट ऊंचा है। औरंगाबाद का सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। जानकारी के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व किया गया था। यह मंदिर भारत के विस्मयकारी मंदिरों में से एक है। इसे काले और भूरे पत्थरों से बनाया गया है।

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औरंगाबाद से करीब 18 किलोमिटर दूर यह सूर्य मंदिर ओड़िशा में स्थित जगन्नाथ मंदिर से मेल खाता है। मंदिर के बाहर शिलालेख है,जिस पर ब्राह्मी लिपि में एक श्लोक लिखा है। जिसके मुताबिक इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि पहले इस मंदिर का द्वार पूर्व की तरफ ही था लेकिन एक बार औरंगजेब मंदिरों को तोड़ता हुआ औरंगाबाद के देव पहुंचा। वहां जाकर उसने मंदिर को तोड़ने की कोशिश की लेकिन पुजारियों ने बहुत विनती की। जिसके बाद उसने कहा कि यदि सच में तुम्हारे ईश्वर में शक्ति है तो कल सुबह तक इसका द्वार पश्चिम की तरफ हो जाना चाहिए।

औरंगजेब अपनी बात रखकर चला गया लेकिन पुजारी सोच में पड़ गए कि अब मंदिर का द्वार कैसे बदलेगा। जिसके बाद उन्होंने सूर्य भगवान की पूजा की। अगली सुबह जब सब वहां गए तो उन्होंने देखा कि मंदिर का द्वार पूर्व से पश्चिम की तरफ हो गया है। कहते है कि इस मंदिर का निर्माण राजा ऐल ने करवाया था। ऐसी मान्यता है कि यहां लोगों की हर मनोकामना पूरी होती है।

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हिंदू धर्म में केले के पत्ते का महत्व, हर कष्ट का होता है निवारण

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हिंदू धर्म में कई पेड़-पौधों का पूजा किया जाता है। उन्हीं में से केले का पेड़ का एक है। पूजा पाठ के दौरान केले का फल, उसके तने और पत्तों का उपयोग किया जाता है। उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत में केले के पत्ते का उपयोग वृहद स्तर पर किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि केले के वृक्ष में साक्षात भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी निवास करती है। गुरुवार की पूजा केले के जड़ में करके से भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न होते है और इससे शुभ फल की प्राप्ति होती है।

भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को केले का भोग लगाया जाता है। साथ ही सत्यनारायण भगवान की कथा में केले के पत्ते का मंडप बनाया जाता है। कहते है कि भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को केले के का भोग लगाने से घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती है। घर में सुख और समृद्धि बनी रहती है।

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वहीं मांगलिक दोष वाले व्यक्ति की शादी यदि केले के पेड़ से करा दी जाए तो वह दोष मुक्त हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि यदि केले के पत्ते पर केला फल का भोग लगाया जाता है तो इससे दांपत्य जीवन में परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है। दंपति को वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है। इसके अलावा यदि आप अपने घर में केले का पेड़ लगाते है तो इससे आर्थिक संकट दूर हो जाता है और धन की प्राप्ति होती है।

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