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मां कामाख्या देवी अम्बुबाची महोत्सव, 22 जून से शुरू
पूर्वोत्तर भारत के राज्य असम में गुवाहाटी के पास स्थित कामाख्या देवी मंदिर देश के 52 शक्तिपीठों में सबसे प्रसिद्ध है। लेकिन इस अति प्राचीन मंदिर में देवी सती या मां दुर्गा की एक भी मूर्ति नहीं है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस जगह देवी सती की योनि गिरी थी, जो समय के साथ महान शक्ति-साधना का केंद्र बनी।
अम्बुबाची मेला
अम्बुबाची मेला कामाख्या मंदिर का सबसे महत्त्वूर्ण और पावन पर्व है जो की असम राज्य के गुवाहाटी नामक स्थान पर स्थित है, हर वर्ष जून के महीने में यह पर्व बहुत ही आस्था और विश्वास से तीन से पांच दिनों के लिए मनाया जाता है।
अम्बुबाची मेला 2019
वर्ष 2019 में अम्बुबाची पर्व या मेला 22 जून 2019 से शुरू होगी और 25 जून को समाप्त होगी, फिर 26 जून को कामाख्या मंदिर के द्वार भक्तो के विशेष दर्शन के लिए खोले जायेंगे।
22 से 25 जून के बीच कामाख्या मंदिर के द्वार बंद रहेंगे माता कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण, इस दौरान सारे भक्त गण मंदिर परिसर में पूजा, अर्चना और सिद्धि करेंगे।
अम्बुबाची मेला दिन और समय 2019
- अम्बुबाची मेला प्रारम्भ: 22 जून 2019, दिन: शनिवार
- कामाख्या मंदिर द्वार बंद: 22 जून 2019, दिन: शनिवार
- कामाख्या मंदिर द्वार खोला जायेगा: 26 जून 2019, दिन: बुधवार
- माता कामाख्या का दर्शन और प्रसाद वितरण: 26, 27, 28 जून 2019, दिन: बुधवार, वृहस्पतिवार, शुक्रवार
अम्बुबाची मेला का महत्तव
कामाख्या शक्तिपीठ के इतिहास के अनुसार, इस शक्तिपीठ का निर्माण देवी सती के योनि गिरने से हुई थी, और देवी सती के मासिक धर्म के आने के समय को ही पवित्र समय माना गया और अम्बुबाची मेले को बड़े ही आस्था विश्वास से मनाने की परंपरा शुरू हुई।
ऐसा माना जाता है की देवी सती इन दिनों यही विराजमान होती है और अपने भक्तो को आशीर्वाद स्वरुप हर मनोकामना पूर्ण होने का आशीर्वाद देती है। अम्बुबाची मेला तांत्रिक और वैदिक दोनों तरीको से सबसे उत्तम समय माना गया है, इस दौरान सभी तांत्रिक और वैदिक पंडित पूजा और साधना करने अपनी सिद्धियों पर विजय पाते है।
इसलिए हिन्दू धर्म में अम्बुबाची मेले का महत्तव बहुत ही ऊँचा माना गया है, कामाख्या मंदिर में हर एक नेता, राजनेता, अभिनेता, सेलिब्रिटी दर्शन के लिए आते रहते है।
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साल की सबसे बड़ी निर्जला एकादशी आज, जाने इस तिथि का महत्व

31 मई 2023 यानी कि आज निर्जला एकादशी है। यह सबसे बड़ी निर्जला एकादशी है। कहा जाता है कि व्रत 24 एकादशियों का फल प्रदान करता है। हिंदू धर्म में 24 एकादशियां होती हैं जिसमें इसे सबसे फलदायक माना जाता है। इस व्रत को रखना थोड़ा कठिन होता है क्योंकि इसमें एकादशी तिथि के सूर्योदय से लेकर अगले दिन द्वादशी के सूर्योदय तक बिना अन्न-जल ग्रहण के रहना पड़ता है।
ऐसी मान्यता है कि निर्जला एकादशी का व्रत करने से व्रती को धन, सौभाग्य, सफलता और समृद्धि की प्राप्ति होती है। वहीं इस साल निर्जला एकादशी पर सर्वार्थ सिद्धि और रवि योग का बना है। कहा जाता है कि पांचो पांडवों ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए यह व्रत रखा था। जिस वजह से इसे “पांडव निर्जला एकादशी” भी कहा जाता है।
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जानिए बिहार के सूर्य मंदिर के बारे में जिसका निर्माण स्वंय भगवान विश्वकर्मा ने करवाया था

बिहार के औरंगाबाद जिले में देव नामक स्थान पर स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर अनोखा है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने एक रात में कर दिया था। यह भारत का एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जिसका दरवाजा पूर्व की ओर न होकर पश्चिम की तरफ है। इस प्रसिद्ध मंदिर में सूर्य देवता की मूर्ति सात रथों पर सवार है। इसमें उनके तीनों रूपों उदयाचल(प्रात: सूर्य), मध्याचल (मध्य सूर्य)और अस्ताचल (अस्त सूर्य)के रूप में देखने को मिलता है।
यह मंदिर करीब एक सौ फीट ऊंचा है। औरंगाबाद का सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करता है। जानकारी के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व किया गया था। यह मंदिर भारत के विस्मयकारी मंदिरों में से एक है। इसे काले और भूरे पत्थरों से बनाया गया है।
औरंगाबाद से करीब 18 किलोमिटर दूर यह सूर्य मंदिर ओड़िशा में स्थित जगन्नाथ मंदिर से मेल खाता है। मंदिर के बाहर शिलालेख है,जिस पर ब्राह्मी लिपि में एक श्लोक लिखा है। जिसके मुताबिक इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि पहले इस मंदिर का द्वार पूर्व की तरफ ही था लेकिन एक बार औरंगजेब मंदिरों को तोड़ता हुआ औरंगाबाद के देव पहुंचा। वहां जाकर उसने मंदिर को तोड़ने की कोशिश की लेकिन पुजारियों ने बहुत विनती की। जिसके बाद उसने कहा कि यदि सच में तुम्हारे ईश्वर में शक्ति है तो कल सुबह तक इसका द्वार पश्चिम की तरफ हो जाना चाहिए।
औरंगजेब अपनी बात रखकर चला गया लेकिन पुजारी सोच में पड़ गए कि अब मंदिर का द्वार कैसे बदलेगा। जिसके बाद उन्होंने सूर्य भगवान की पूजा की। अगली सुबह जब सब वहां गए तो उन्होंने देखा कि मंदिर का द्वार पूर्व से पश्चिम की तरफ हो गया है। कहते है कि इस मंदिर का निर्माण राजा ऐल ने करवाया था। ऐसी मान्यता है कि यहां लोगों की हर मनोकामना पूरी होती है।
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हिंदू धर्म में केले के पत्ते का महत्व, हर कष्ट का होता है निवारण

हिंदू धर्म में कई पेड़-पौधों का पूजा किया जाता है। उन्हीं में से केले का पेड़ का एक है। पूजा पाठ के दौरान केले का फल, उसके तने और पत्तों का उपयोग किया जाता है। उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत में केले के पत्ते का उपयोग वृहद स्तर पर किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि केले के वृक्ष में साक्षात भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी निवास करती है। गुरुवार की पूजा केले के जड़ में करके से भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न होते है और इससे शुभ फल की प्राप्ति होती है।
भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को केले का भोग लगाया जाता है। साथ ही सत्यनारायण भगवान की कथा में केले के पत्ते का मंडप बनाया जाता है। कहते है कि भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को केले के का भोग लगाने से घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती है। घर में सुख और समृद्धि बनी रहती है।
वहीं मांगलिक दोष वाले व्यक्ति की शादी यदि केले के पेड़ से करा दी जाए तो वह दोष मुक्त हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि यदि केले के पत्ते पर केला फल का भोग लगाया जाता है तो इससे दांपत्य जीवन में परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है। दंपति को वैवाहिक सुख की प्राप्ति होती है। इसके अलावा यदि आप अपने घर में केले का पेड़ लगाते है तो इससे आर्थिक संकट दूर हो जाता है और धन की प्राप्ति होती है।
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