होली और खेल अलग-अलग चीजें हैं, पर नॉर्थ-ईस्ट राज्यों के लिए ये एक ही हैं। यहां के बच्चों और युवाओं को सालभर इस त्योहार का इंतजार रहता है। पर रंग खेलने के लिए नहीं, इस दौरान होने वाली खेल प्रतियोगिताओं के लिए। इन पांच दिनों में तय हो जाता है, बच्चे को कौन सा गेम खेलना है।

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साई (स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया) के पूर्व रीजनल डायरेक्टर डॉ. सुभाष बासुमतारी बताते हैं कि यहां हर त्योहार खेल से जुड़ा है। पूजा रात को होती है, पर तैयारी दिनभर खेल प्रतियोगिताओं से होती है। टोक्यो ओलिंपिक में नॉर्थ-ईस्ट से आठ खिलाड़ी थे। तीन मेडल भी ले आए।

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मेडल की भूख मां की लोरियों में

फिजिकल फाउंडेशन ऑफ इंडिया के जनरल सेक्रेटरी पीयूष जैन कहते हैं कि यहां 36 तरह के स्पोर्ट्स खेले जाते हैं। मणिपुर यूथ अफेयर्स एंड स्पोर्ट्स के डिप्टी डायरेक्टर टी थाउवा सिंह कहते हैं कि मेडल की भूख इन्हें मां की लोरियों में ही मिल जाती है। इन लोरियों में शरीर मजबूत रखने, खेल में रुचि बढ़ाने जैसे शब्दों का रस घुला होता है।

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पूजा के बाद उमंग लाय हरोबा का आयोजन

बच्चे के साथ मां केरेदा-केरेदा (सिर दाएं-बाएं घुमाना सिखाना), टिंग-टिंग चौरो (बच्चे को हवा में उछालकर फिर पकड़ना) और टेडिंग-टेडिंग (उंगलियों को लचीला बनाना) जैसे खेल खेलती है, जिससे उसका शरीर लचीला, गठीला बने। मीराबाई चानू की कोच रहीं अनिता चानू कहती हैं,‘हर गांव में पूजा के बाद उमंग लाय हरोबा होता है। इसमें पारंपरिक खेल होते हैं। बड़ों को खेलते देख बच्चे भी प्रेरित होते हैं।’ वे बताती हैं कि पहाड़ी खाना भी पौष्टिक होता है। इससे मजबूती मिलती है।

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खेल की ताकत को देखते हुए सरकार ने भी इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं पर काफी काम किया। सभी राज्यों में साई के सेंटर हैं। मणिपुर, नार्थ-ईस्ट का ऐसा पहला राज्य है जहां सबसे पहले विश्वस्तरीय खेल इंफ्रा तैयार हुआ। परंपरागत खेल थंगता (मार्शल आर्टस) व मुखना (रेसलिंग) खेलों के लिए इंटरनेशनल-नेशनल फेडरेशन है। 1987 में ही साई सेंटर और 1999 में विश्वस्तरीय शूटिंग रेंज, एथलेटिक्स ट्रैक, हॉकी ग्राउंड बन चुके थे।

Source : Dainik Bhaskar

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